जाने कैसे जा ढूँढा, उनके घर वालों ने ।
वो अव्वल से अव्वल , हम अंतिम से अव्वल थे
वो यथा नाम गुण खान , हम केवल नाम मुकम्मल थे ।
वो सुसंस्कृत , विद्वान , मनीषी , हम थे कोरे लट्ठ
वो सुभाषिणी , कोकिल कंठी , हम तो बहरे भट्ट ।
उनकी वाणी सुन हो जाते,सब स्तब्ध खड़े
हम तो निपट गंवार कहें सब ,हमको चिकने घड़े।
उनकी हाँ जब हुई कहें सब ,अहो भाग्य तुम्हारा
समझो स्वयं को धन्य,वरना रह जाएगा कुँवारा।
फिर भी जाने कैसे दौड़ी सरपट गाड़ी अपनी
मैंने ढोल बजाया ,तो उसने अपनी ढपलि ।
बीत गया छत्तीसी आँकड़ा ,अब क्या घबराना
जीवन जैसे लगता अब तो,हर दिन नया तराना ॥
डा योगेन्द्र मणि कौशिक